बापी हमारे तब Izatnagar, इज़्ज़तनगर, बरेली में पोस्टेड थे।
हमारे पड़ोस में पाठक आंटी सपरिवार रहती थी जिसमें अंकल और उनके पाँच बच्चे थे। जब भी वह हमारे घर आती थी, हमारे घर का पानी चुल्लू में लेकर पीया करती थी क्योंकि हम बंगाली लोग मछली खाते है और वह थी विशुद्ध शाकाहारी। मगर उनके बच्चे allowed थे हमारे घर का कुछ भी शाकाहारी खाने के लिए ।
अच्छा मज़ेदार बात यह थी, कि आंटी का यह बर्ताव कभी खला भी नहीं।
शायद इसलिए क्योंकि वह बेहद मददगार थी। जब माँ का एक बार टेबल फैन के ब्लेड से उनकी तीन उँगलिया लगभग कट सी गयी थी और हम बहनें बहुत ही छोटी थी, तब उन्होंने ही माँ को नहलाने, खिलाने से लेकर हमारी देखभाल ऐसे की थी जैसे ... यानि किसी उदाहरण के परे ...
हमारे घर के सामने के दाएं तरफ एक मैसी परिवार रहता था । अंकल की जगह यहाँ भी आंटी ज्यादा मशहूर थी जो टीचर जी के नाम से ज्यादा जानी जाती थी। हम सबको २५ दिसम्बर का बड़ा इंतज़ार रहता था शायद क्रीम से भरा केक खाने को जो मिलता था । और २४ दिसम्बर से ही यीशु के कैरोल्स शुरू हो जाते थे।
बराबर से ही फैज़ परिवार था जहाँ हैंडसम सलीम अंकल और उनकी खूबसूरत पत्नी रज़िया रहती थी। आंटी के हाथ की सेवइयाँ ... आहह !! स्वाद तो अभी तक जुबान पर चढ़ा हुआ है । कबाब तो आज तक उनके घर से बेहतर कभी चखा ही नहीं।
अरे, कहाँ है आप लोग ?
- निवेदिता दिनकर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2017) को
जवाब देंहटाएं"हथेली के बाहर एक दुनिया और भी है" (चर्चा अंक-2610)
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अब पहले जैसा माहौल कहाँ, बस यादें बहुत सी हैं जेहन में
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संस्मरण
जाने कहाँ गए वो दिन ... यादें ही रह जाती हैं बस ...
जवाब देंहटाएं