बुधवार, 11 दिसंबर 2013

यादों का पुलिंदा



न जाने क्यों,
आज फिर, 
गुलाबी ठण्ड ने,
कस्तूरी की मादकता ओढे ,
दोबारा दस्तक दिया है ...
कि ...
जैसे,
हर आहट में 'तुम' हो । 
हर आहट में 'तुम' हो ॥ 

वह बारिश की चंचल बूंदे ,
मुझे अनदेखा कर … 
तुमसे पिघल  जाना … 
मेरा रूठना, तुम्हारा मनाना, 
और … 
मेरा रोम रोम का खिल जाना  …   
जैसे,
हर चाहत में 'तुम' हो । 
हर चाहत में 'तुम' हो ॥  

वह सर्दी  की गर्माहट,  
हाथों का ठंडा पड़ना … 
आँखों में शरारत  
और 
मंद मंद मुस्काना … 
जैसे,
हर गुदगुदाहट में 'तुम' हो ।   
हर गुदगुदाहट में 'तुम' हो ॥ 

वह तपती गर्मी की शीतलता,
लू के थपेड़े ,
संग चलकर ,
मंज़िल की  ख्वाइश 
और 
बार बार यहीं ख्वाइश  … 
जैसे 
हर सरसराहट में 'तुम' हो । 
हर सरसराहट में 'तुम' हो ॥  

- निवेदिता दिनकर   
  ११ /१२ /१३