ज़ेहन में जुस्तजू
झीनी सी तृषा लिए ….
कैसे कैसे नाजुक मोड़
कभी सावन भादों में सूखे रहना
तो कभी बेचारा बेरंग फागुन
ऊबड़ खाबड़ हो
या बीजुरी सी जगमग,
कब मैं समाती चली गई …
होके बेक़रार
जैसे कहानी की कोई किरदार |
जैसे कहानी की कोई किरदार ||
अवहेलित हुई
व्यथित हुई
दे न सकी दलील सही ...
कतरा कतरा
बावड़ी मेरी
सकुचाती रही
सिमटती रही
कब मैं लहराती चली गई …
होके बलिहार
जैसे कहानी की कोई किरदार |
जैसे कहानी की कोई किरदार ||
सुलग रही हैं तमन्नाऐ,
पिघल रही धडकनों की चादर
फिरकनी बन
फिरती रही...
कितने गिरह
कितनी चुप्पी
कब मैं ढाकती चली गई …
डूबके बारम्बार
जैसे कहानी की कोई किरदार |
जैसे कहानी की कोई किरदार ||
- निवेदिता दिनकर