सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

फिर बाँटे



सुनों, 
कुछ शामें मौसिकी के 
कुछ लम्हें आशिक़ी के
कुछ मिठास सर्द के 
और 
कुछ टुकड़े दर्द  के  

एक बार फिर बाँटे ?

- निवेदिता दिनकर 
  20/10/2015   

आज की शाम: गुलाबी सर्द में नहायी मैं और देहरादून 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

एक सवाल


रह रह कर एक घटना याद आती है और फिर कुछ अनसुलझे सवाल।  
आज मैं उस 'वाक़या ' को लिखना चाहती हूँ। 
  
 मई २००८ की बात है । फिरोज़ाबाद से एक शादी का निमंत्रण कार्ड आया था। जाना जरूरी था । 
इसलिए मैं, दिनकर और हमारा  ड्राइवर शाम होते ही आगरा से फिरोज़ाबाद के लिए निकल पड़े। आगरा फ़िरोज़ाबाद की दूरी लगभग ४० कि मी है। और फिर उन दिनों सड़क पर काम चल रहा था इसलिए सड़क बेहद ख़राब व् उबड़ खाबड़।
रात का समय, खैर टाइम से शादी में पहुँच गए थे और घंटा भर रूककर दावत खाकर वापिस आगरा के लिए रवाना हो गए। 

लौटते वक़्त ड्राइवर ने आगरा जल्दी पहुँचने के चक्कर में स्पीड भी बढ़ा दी थी। एकदम से खुरदरी मिटटी से टायर का रगड़ खाने की आवाज़ और कुछ चार पांच मीटर कार का हवा में तैरते हुए सड़क को ज़ोर से पटकते हुए छूना, बस ऐसा लगा कि अब सब ख़त्म  … 

साँसे अटक गई थी और हमने साक्षात मौत को जीता था।    

इस वाक़या के हफ्ते भर बाद यानि १३ मई २००८  की रात्रि हमारे उसी 'ड्राइवर' की आकस्मात मृत्यु का समाचार मिलता है। १४ मई २००८ दोपहर लगभग १२ बजे 'दिनकर' फ़िरोज़ाबाद रोड पर गंभीर रूप से दुर्घटना ग्रस्त हो जाते है। 
थोड़ा सोचने पर मज़बूर हो जाती हूँ क्योंकि ठीक एक हफ़्ता  पहले हम तीन लोग यानि मैं, दिनकर और ड्राइवर साथ थे और एक्सीडेंट टल गया था । 
यानि उस रात किस्मत ने मुझे ही नहीं हम तीनों को बचा लिया था या यूँ कहे, उस वक़्त किसी एक की वज़ह से जान बची था और चूँकि मुझे इन आघातों से बचना लिखा था और आगे जाकर दिनकर को जतन करना था इसलिए कुछ अच्छी शक्तियों की वजह से पहला वाला हादसा टल गया था  …

क्या ऐसा ही था? 

- निवेदिता दिनकर 
  09/10/2015
  
फोटो क्रेडिट्स : उर्वशी दिनकर, लोकेशन - मैसूर के  श्रीरंगपट्ट्ना में 'हम' 

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

दिलेरी



बहुत खलबली चल रही थी कुछ महीनों से 
उसे मिलाना आज ही था … 

यूँ ही तक़दीर नहीं मिलाती कुछ आत्माओं से 
उसे जिलाना आज ही था  … 

- निवेदिता दिनकर 
  08/10/2015  

तस्वीर - दिलेरी की मिसाल रूपा व ऋतु के साथ, Sheroes' Hangout, Agra  

शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

विस्थापना




जहाँ अजीब सी आशंका, बेवज़ह की नफरत, हैरान करती फितरत, एक कष्ट मिश्रित भय, 
वहीं एक वाक़या आज अंदर तक अनगिनत इत्मीनान दे गई। 

जब दो दिन पहले अचानक दिल्ली जाना हुआ, तब अपनी प्यारी जर्मन शेफर्ड को एक खास मिलनेवालों के पास छोड़ना पड़ा। लेकिन तीसरे दिन ही उनका फ़ोन आ गया कि वह थोड़ी परेशान हो रही है । हमने तुरंत बैग पैक किया और आगरा रवाना हो गए ।
और जब उसे लेने पहुँचे, उसका वर्णन शब्दों में करना कठिन है। 

जिस प्रकार वह मेरे से लिपटी और अपनी जुबान में कितनी बातें कह गई कि मेरी सारी थकान दूर हो गई और मेरी आत्मा सोचने पर मज़बूर हो गई कि कहीं शब्द "जानवर" और "इंसान"  विस्थापित  तो नहीं हो गए …   

- निवेदिता दिनकर 
  03/10/2015

नोट:  यह लाड़ली "बनी" है   ...