शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

विस्थापना




जहाँ अजीब सी आशंका, बेवज़ह की नफरत, हैरान करती फितरत, एक कष्ट मिश्रित भय, 
वहीं एक वाक़या आज अंदर तक अनगिनत इत्मीनान दे गई। 

जब दो दिन पहले अचानक दिल्ली जाना हुआ, तब अपनी प्यारी जर्मन शेफर्ड को एक खास मिलनेवालों के पास छोड़ना पड़ा। लेकिन तीसरे दिन ही उनका फ़ोन आ गया कि वह थोड़ी परेशान हो रही है । हमने तुरंत बैग पैक किया और आगरा रवाना हो गए ।
और जब उसे लेने पहुँचे, उसका वर्णन शब्दों में करना कठिन है। 

जिस प्रकार वह मेरे से लिपटी और अपनी जुबान में कितनी बातें कह गई कि मेरी सारी थकान दूर हो गई और मेरी आत्मा सोचने पर मज़बूर हो गई कि कहीं शब्द "जानवर" और "इंसान"  विस्थापित  तो नहीं हो गए …   

- निवेदिता दिनकर 
  03/10/2015

नोट:  यह लाड़ली "बनी" है   ...

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-10-2015) को "स्वयं की खोज" (चर्चा अंक-2118) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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