न जाने क्यों,
आज फिर,
गुलाबी ठण्ड ने,
कस्तूरी की मादकता ओढे ,
दोबारा दस्तक दिया है ...
कि ...
जैसे,
हर आहट में 'तुम' हो ।
हर आहट में 'तुम' हो ॥
वह बारिश की चंचल बूंदे ,
मुझे अनदेखा कर …
तुमसे पिघल जाना …
मेरा रूठना, तुम्हारा मनाना,
और …
मेरा रोम रोम का खिल जाना …
जैसे,
हर चाहत में 'तुम' हो ।
हर चाहत में 'तुम' हो ॥
वह सर्दी की गर्माहट,
हाथों का ठंडा पड़ना …
आँखों में शरारत
और
मंद मंद मुस्काना …
जैसे,
हर गुदगुदाहट में 'तुम' हो ।
हर गुदगुदाहट में 'तुम' हो ॥
वह तपती गर्मी की शीतलता,
लू के थपेड़े ,
संग चलकर ,
मंज़िल की ख्वाइश
और
बार बार यहीं ख्वाइश …
जैसे
हर सरसराहट में 'तुम' हो ।
हर सरसराहट में 'तुम' हो ॥
- निवेदिता दिनकर
११ /१२ /१३