कभी चित्रकार की तूलिका में, 
कभी लुहार के हथौड़े में, 
कभी रेहड़ी वाले के ठेल में, 
कभी जीवन के रेलमपेल में 
बसंत अगड़ाई लेता रहा  ...  
निशंक आह्वान देता रहा  ... 
कभी उस शिशु के आँखों में 
कभी उस माँ के चेहरे पर  ...  
जो बड़े चाव के साथ 
सड़क किनारे करा रही स्तन पान  ...  
तो कभी उस पिता के साँसों में 
जो दुर्गन्ध नाली की सफाई रहा कर 
ले परिवार का पोषण अपने सर  ...   
चाहे हो पूस की सर्द रात 
या हो जेठ की दुपहरिया 
बसंत गुनगुनाये निकलता रहा 
व्याकुल आह्वान देता रहा  ... 
लेकिन, 
इस छोटे बारह साल के आँखों में नहीं है कोई बसंत, 
न कोई बेफिक्री, न ही कोई उतावलापन  
कर गया सवाल, बारम्बार, उसका भोलापन 
रे मन,  
अब तु ही बता, क्या आदि क्या अंत  
 क्यों दे रहा अधूरा हेमंत, अपूर्ण बसंत 
बसंत अनवरत बहता  रहा 
निःशब्द आह्वान देता रहा 
बसंत अनवरत बहता  रहा 
निःशब्द आह्वान देता रहा 
- निवेदिता दिनकर  

बस यूँ ही बहता है बसंत तो....निःशब्द !!!!
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