ईश्वर के प्रति मेरी आस्था चरम पर है/थी ...
सुबह शाम तुम्हारे सामने धूपबत्ती अगरबत्ती दीया का
इतना प्रभाव पड़ा ...
मेरे पूर्वजों पर,
अलबत्ता मेरे आसपास तो सब कुछ बहुत ही बढ़िया है ...
रसोई घर भरा हुआ,
अलमारियों में कपड़े,
कैश पूरा ...
बागानों में फूल उगाने के सारे साधन
जो फूल उगने में आनाकानी करते,
उन पर जोर जबरदस्ती कर जाते हुए कभी मलाल नहीं हुआ ...
गुमान की बूंदे टपर टपर गिरते उठते देखी जा सकती थी ...
सारे माध्यम हष्ट पुष्ट !!
सीरिया, रोहिंग्या, क्युबा, ईरान ...
में लड़कियों के साथ क्या हश्र हो रहा है ...
यह उनका परिवार देखेगा ...
दूर दिगंत में क्या हो रहा है ,
इसकी मुझे क्या ही दरकार है !!
जब एक बाप अपनी चौदह साल की बेटी को
दुल्हन बनने के लिए इसलिए मज़बूर करता है
क्योंकि
एक भूखा पेट कम हो जायेगा ...
बेरोज़गारी रेज़गारी देनदारी के तीन पाँच से अलग है दुनिया ...
यह दुनिया नक़्शे में नहीं पाये जाते ...
और न ही दिमाग़ के बक्से में ...
छत्तीस पन्नों में मात्र तीन पन्नों में देश विदेश की ख़बर की अख़बार
बाकि तैंतीस पन्ने लबालब खर्चे करने तरीक़े ...
लब्बोलुआब यह
कि देखकर सिहरन नहीं होती अब ...
सिहरन तो किसी बात से नहीं होती ...
कांच पर धूल तो जमते रहते हैं,
आंखों पर पट्टियां बाँधी जाती है/ रहेंगी ...
दुल्हन और वेश्यालय में कोई फर्क नहीं ...
इस बात का अब ईश्वर को भी कोई फर्क नहीं ...
- निवेदिता दिनकर
०९/११/२०२२
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-11-2022) को "भारतमाता की जय बोलो" (चर्चा अंक 4609) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना निवेदिता जी
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