इंसानी बस्ती के साथ आपके और हमारे घरो में फुदकने वाला "प्रेम " आखिर कहा चला गया ? ये सवाल पुरानी पीढ़ी के साथ नयी पीढ़ी के लिए भी आज चिंता का सबब बनता जा रहा है।
घरों को अपनी कुचु पु चु से चहकाने वाला प्रेम हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है। मनुष्य जहाँ भी मकान बनाता है, वहां प्रेम अपने आप जाकर घोसला बना कर रहना शुरू कर देता हैं।
इस ढाई अक्षर वाले खूबसूरत शब्द का कभी इंसान के घरों में बसेरा हुआ करता था और बच्चे बचपन से इसे देखते हुए बड़े हुआ करते थे। अब स्थिति बदल गई है। जिसके परिणाम स्वरूप प्रेम तेजी से विलुप्त हो रहा है। इस के अस्तित्व पर छाए संकट के बादलों ने इसकी संख्या काफी कम कर दी है और कहीं..कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देता और इनकी जगह धूर्त पंतियो ने ले लिया है |
वैज्ञानिकों के मुताबिक इस की आबादी में 60 से 80 फीसदी तक की कमी आई है। यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि "प्रेम " इतिहास की चीज बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले।
पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार प्रेम की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। लोगों में प्रेम को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की आज सख्त जरूरत है |
संपादकीय विचार: कुछ दिनों से प्रेम की चहचाहट बमुश्किल सुनाई देती है। विलुप्त होता प्रेम की प्रजाति को लेकर लोगों में बचाव अभियान की मुहिम चलाई जा रही है।
काश इस मुहिम के तहत लोगों में बदलाव देखा जा सकता !!
- निवेदिता दिनकर
तस्वीर : उर्वशी दिनकर की नायाब पेंटिंग
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-04-2017) को
जवाब देंहटाएं"लोगों का आहार" (चर्चा अंक-2616)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
उन्मुक्त और निश्छल प्रेम आज विलुप्त ही है ... अच्छा व्यंग ....
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