कभी कोशिश भी न करना
छूने की तुम
कराह न उठे बेचारी
असहाय सी मारी मारी
शरीर को चीरती हुई
डरी सहमी सी
फूट न पड़े टीस कहीं
आह , वह प्रचंडता
दिया जो तुमने
कैसे मैंने मन ही मन
रोक अंतर्मन
अपने को सम्हाला
नारंगी सी ज्वाला
जो भीतर घर कर चुकी थी
आहिस्ता आहिस्ता
अपने रुख की ओर .....
परत दर परत
दबी हुई सिसकियाँ
निस्तब्ध खामोशियाँ
जाने कितनी आहे
लिपटी हुई
मजबूती से
जलती रही ,
जलती रही .......
- निवेदिता दिनकर
निवेदिता : दर्द का दस्तावेज...!! बहुत खूब. एक बात प्रचंडता 'दी जाती' है, 'दिया नहीं जा' सकता.
जवाब देंहटाएंआपका कमेंट सर आँखों पर, Raju!! बहुत शुक्रिया ......
हटाएंआह....
जवाब देंहटाएंमार्मिक......
अनु
.आभार .....बहुत ही अच्छा लगा, अनु !!!.
हटाएंबहुत सुन्दर कविता . आपके इस पोस्ट का प्रसारण ब्लॉग प्रसारण
जवाब देंहटाएंके आज 20.05.2013 के अंक में किया गया है. आपके सूचनार्थ.
Neeraj Ji, मेरी रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया । और बहुत सारा आभार ...मेरे पोस्ट को ब्लॉग प्रसारण में शामिल करने के लिये…. ..
हटाएंवेदना की सुन्दर अभिव्यक्ति. कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें.
जवाब देंहटाएंमार्मिक अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक .....
जवाब देंहटाएंबहुत नाज़ुक प्रतिक्रिया , शिखा … शुक्रिया,
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