शनिवार, 28 जून 2014

इंकार


समय सरपट दौड़ रहा
और 
मैंने मुकाबला करने से कर दिया इंकार। 
दावा कर दिया,
मनमौजियों से मत उलझना॥  
- निवेदिता दिनकर

रविवार, 22 जून 2014

आज

सहेज कर 
एहसास में लिपटा
वह सूखा सा फूल, 
फटे से कागज़ पर
लिख जाना 
मेरा नाम,
न कहने पर 
तुम्हारे होठों का 
बेबस हो सूखना, 
आज सब 
सोचने का मन कर रहा है …  
प्रेम की तपिश क्या केवल दो बाँहो के दरमियान ही पनपती है? 

- निवेदिता दिनकर 
  २२/०६/२०१४ 

शनिवार, 21 जून 2014

कब तक!


बिन पानी के भी बहे चले जा रहे 
और 
निकलते जा रहे 
मीलों दूर …
'अपनों' से !!    
आखिर कब तक !!!

- निवेदिता दिनकर 

नोट: साभार अमृता शेरगिल की खूबसूरत पेंटिंग 

मंगलवार, 17 जून 2014

चुप्पी



मेरी तसल्ली के लिए ही सही
मगर
तुम चुप्पी तोड़ डालो।

कितनी कही अनकही बातें
और
कितने छूते अछूते पल।

मालूम ही नहीं चला,
जब तुम पास थे
और

यह जानते हुए
भी
कि
जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग
केवल अंकगणित के अन्तर्गत ही नहीं
बल्कि
रहस्यमयी प्रक्रियाएँ है।

फिर भी,
यूँ ही गंवाते चले गए …


- निवेदिता दिनकर

नोट : उपरोक्त पेंटिंग रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा बनाई गई है | 

सोमवार, 16 जून 2014

ज्यों ही


कुछ लिखने की तमन्ना लिए ज्यों ही बैठती, 
कोई न कोई जरूरी गैर जरूरी वजहों से आखिर लिख ही नहीं पाई …
कभी बाहर, आंधी के से आसार दिखे, 
तो,
कमरे सन्नाटों से भरे हुए …

- निवेदिता दिनकर

शनिवार, 14 जून 2014

लहर


उफ्फ...
यह लहर, 
फिर लहर, 
और 
फिर एक लहर... 
हर पहर

लहर लहर...
आत्म मुग्ध
यह लहर...
क्षण भंगुर
है लहर,
फिर भी
लहर लहर... 


- निवेदिता दिनकर

शुक्रवार, 13 जून 2014

आँधी


आँधी के साथ एक जूनून, नहीं शायद एक मिटटी का एहसास, कह रही हो 
सब एक दिन धूल हो जाना है । 
मैंने कहा, ऐसे कैसे ?
अभी अंदर की "आँधी" का आना बाक़ी है, दोस्त॥


- निवेदिता दिनकर

शुक्रवार, 6 जून 2014

अकेले





वह प्रेम ही क्या, जहाँ ईर्ष्या न हो!!

इस बार जब तुम आना ,
अकेले ही आना,
बस अकेले … 
न कोई गल्प, 
न कोई परी कथा, 
न साजो सामान, 
न वीर गाथा,
बस अकेले … 

बस तुम …

मुझे ईर्ष्या जो होती है ॥ 



- निवेदिता दिनकर 

गुरुवार, 5 जून 2014

यूँ ही



एक कोने में बैठकर,
निहारती रही,
पूरे कमरे में 
तुम बिखरे हुए हो … 
खूँटी में, 
जहाँ तुम्हारी शर्ट टंगी है, 
चादर की सिलवटों में,
चौकी पर 

जहाँ बैठकर जूते के फिते बांधे,
जमीन पर फैले
शीशे के टुकड़ों में …
चाह कर भी
नहीं समेट पायी
और
रहने दिया
यूँ ही सब कुछ
हमेशा हमेशा के लिए
ज़हन की रफ़्तार में॥ 


- निवेदिता दिनकर

मंगलवार, 3 जून 2014

देख माँ

मन द्रवित हो रहा है, जबसे बच्चियों के बारे में पढ़ा है ...

देख माँ, 
नहीं जाना चाहती मै … 
तुझे छोड़ कर, 
बहुत रोयेगी तु
यह जानकर, 
बिन मेरी गलती पर,
मुझे यह सज़ा दिये जाने पर … 

बहुत रोयेगी तु
यह जानकर,

देख माँ,
बहुत दर्द हो रहा है न,
तुझे छोड़ कर,
मैं भी बहुत रोयी हूँ
यह जानकर,

मगर माँ,
तु अब एक काम कर,
मेरा जाना न ज़ाया कर,
एक एक को पकड़,
उनके किये की सज़ा देकर,
ही बैठना तु …
यह जानकर …

उनके किये की सज़ा देकर,
ही बैठना तु …
यह जानकर … 

- निवेदिता दिनकर