यूँ ही
एक कोने में बैठकर,
निहारती रही,
पूरे कमरे में
तुम बिखरे हुए हो …
खूँटी में,
जहाँ तुम्हारी शर्ट टंगी है,
चादर की सिलवटों में,
चौकी पर
जहाँ बैठकर जूते के फिते बांधे,
जमीन पर फैले
शीशे के टुकड़ों में …
चाह कर भी
नहीं समेट पायी
और
रहने दिया
यूँ ही सब कुछ
हमेशा हमेशा के लिए
ज़हन की रफ़्तार में॥
- निवेदिता दिनकर
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (06.06.2014) को "रिश्तों में शर्तें क्यों " (चर्चा अंक-1635)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजेंद्र कुमार जी, आपके प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए। आशा करती हूँ कि मेरी रचना सबको पसंद आये, सादर |
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachna.............
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत कोमल अहसास लिये सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंसुंदर अहसास से सजी कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....बहुत कोमल भाव...
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति | वियोग के क्षणों में प्रियतम से जुडी एक एक वस्तु उसकी उपस्थिति का अहसास दिलाती है इसी अहसास को सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है |
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