गुरुवार, 27 मार्च 2014

नर्म


प्रिय दोस्तों, कुछ दिनों पहले की बात है। मैं जिस रास्ते यूनिवर्सिटी जाया करती थी , मेरी मुलाक़ात कुछ तीन पिल्लों से होती थी जो अपने माँ के साथ एक under construction वाले मकान में रहने लगे थे, यह रचना उसी घटनाक्रम से प्रेरित है । 
अब आगे ..., धन्यवाद


जब भी उस मोड़ की तरफ से निकलती,

इंतज़ार करती 
कि 
कब उस अधबने मकान,
तक पहुँचू,
और 
तीनों को खेलते हुए,
चिपके हुए अपनी माँ से  
या फिर  
सर्दी की नर्म धूप  में, 
उलटते पलटते हुए, 
एक नज़र देखू  …

कितना मुलायम दृश्य,
हल्की फुल्की,
फुदकती हुई ,
उबड़ खाबड़ मिटटी,
और घास …   
मन में उठते कितने आस … 

काफी दिन बीत गए,
जाना भी नहीं हुआ था …    

और एक दिन...  
कुछ ढूँढ़ती  हुई,
कुछ सोचती हुई, 
मेरी आँखें,
अधबने उस मकान में ,
फिर पहुँच गई,
इस बार 
कोई नहीं दिखा !!   

पर, अचानक …  
न जाने कहाँ से आ गए … 
तीनों के तीनों 
भूरे, सफ़ेद, काले   
रोयेदार बच्चें
अपनी माँ साथ …  
और 
मैं ?

मेरे काँधे पर ,
किसी का हाथ आया,
देखा, "वो " हैं,  
पूछा , क्या हुआ ??
मैंने कहा, 
" बुद्धम शरणम् गच्छामि 

- निवेदिता दिनकर 

सोमवार, 10 मार्च 2014

… नहीं हूँ मैं

हवा के रुख को पहचानती मैं, 
खुशबूओं के एहसास में लिपटी मैं, 
बूँदों के चमकीलेपन में मैं ,
किरणों के झरोखों से झाँकती मैं, 
उमड़ती घुमड़ती बादल मैं, 
आकाशीय बिजली की रौद्रता मैं, 
चाँद की धड़कन मैं, 
आस की असुअन मैं, 
मगर.…  
बदहवास नहीं हूँ 'मैं '।  
बदहवास नहीं हूँ 'मैं '॥ 

रोजी की रोटी मैं, 
दाना का पानी मैं, 
अंगीठी की आँच मैं, 
आंच की सांच मैं,  
मकान का घर मैं, 
घर का द्वार मैं ,
पसीने की बूँद मैं, 
दर्द का सुकून मैं, 
मगर … 
बदनसीब नहीं हूँ 'मैं ' ।  
बदनसीब नहीं हूँ 'मैं '॥ 

तन्हाई  से जूझती मैं, 
हर मोड़ से गुजरती मैं, 
समाज  की रीति मैं ,
बेफिक्री की मस्ती मैं, 
ख़ामोशी की आवाज़ मैं, 
लाज की लिहाज़ मैं ,
लालिमा की दहक मैं, 
आह्लाद की महक मैं,
जगत का आधा मैं , 
कालिंदी की राधा मैं,
मगर … 
बदचलन नहीं हूँ 'मैं ' । 
बदचलन नहीं हूँ 'मैं '॥ 

 - निवेदिता दिनकर