हवा के रुख को पहचानती मैं,
खुशबूओं के एहसास में लिपटी मैं,
बूँदों के चमकीलेपन में मैं ,
किरणों के झरोखों से झाँकती मैं,
उमड़ती घुमड़ती बादल मैं,
आकाशीय बिजली की रौद्रता मैं,
चाँद की धड़कन मैं,
आस की असुअन मैं,
मगर.…
बदहवास नहीं हूँ 'मैं '।
बदहवास नहीं हूँ 'मैं '॥
रोजी की रोटी मैं,
दाना का पानी मैं,
अंगीठी की आँच मैं,
आंच की सांच मैं,
मकान का घर मैं,
घर का द्वार मैं ,
पसीने की बूँद मैं,
दर्द का सुकून मैं,
मगर …
बदनसीब नहीं हूँ 'मैं ' ।
बदनसीब नहीं हूँ 'मैं '॥
तन्हाई से जूझती मैं,
हर मोड़ से गुजरती मैं,
समाज की रीति मैं ,
बेफिक्री की मस्ती मैं,
ख़ामोशी की आवाज़ मैं,
लाज की लिहाज़ मैं ,
लालिमा की दहक मैं,
आह्लाद की महक मैं,
जगत का आधा मैं ,
कालिंदी की राधा मैं,
मगर …
बदचलन नहीं हूँ 'मैं ' ।
बदचलन नहीं हूँ 'मैं '॥
- निवेदिता दिनकर
वाह ......... खूबसूरत और पढ़ते हुये आत्मविश्वास से भरपूर नारी का चित्र अधिक से अधिकतम स्पष्ट होता गया।
जवाब देंहटाएंsuperbly written... bahot khub... ek behtarin rachna...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब वाह सुंदर रचना !
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