प्रिये,
तुम इतनी क़यामत ढ़ाओगी,
इस क़दर कहर बरपाओगी ...
कि
तुम पर नज़्म लिखे बिना रहा नहीं जा सका |
अब
इस अदा बलखाना ,
कोमल नाज़ुक़ बदन की स्वामिनी होना ,
छरहरी,
स्पर्श मात्र से
बिजली कौंध जाना ...
सब उस ख़ुदा की नेमत ही तो है |
हाये ,
रफ़्ता रफ़्ता ...
आबोहवा भी
तुम से
और
कुदरत का करिश्मा
भी ...
जिस सांचे ने
बेमिसाल तराशा ,
जिस ग़ज़ल ने
जान फूँका ,
कोई भी 'मक़बूल' फ़िदा होने से अपने को नहीं रोक सका |
ऐ मीठे स्वाद धारिणी ,
ऐ पतली कमरिया नु ,
ऐ बेलनाकार
'लौकी'
पहले
तुम,
फिर
तु ,
फिर
तेरे इश्क़ में ...
' ग़ुलाम '
बन गए ...
- निवेदिता दिनकर
१३/०९/२०१७
तस्वीर : मेरे बागीचे की शान
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-09-2017) को
जवाब देंहटाएं"शब्द से ख़ामोशी तक" (चर्चा अंक 2728)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक