वर्तमान के गर्भ से …
बस सोचती रह जाती हूँ, अपने काम काज के बीच, जैसे ही निपटाउंगी, वैसे ही कुछ लिख डालूंगी ।
बस सोचती रह जाती हूँ, अपने काम काज के बीच, जैसे ही निपटाउंगी, वैसे ही कुछ लिख डालूंगी ।
पता नहीं, कब से।
आज कल पहले से ज्यादा जीने की कोशिश करती हूँ और करती भी रहूंगी। सारी बातें एहसासों पर खूब है, जिंदगी को रवानी देने के लिए। पर कहीं न कहीं बाहर निकल कर आ पाने में असमर्थ हूँ । कई बार दिशा भ्रम सी नौबत कह कर तसल्ली भी दे देती हूँ ।
मिथ्या ही हँसती हूँ, मगर यह सूनी आँखे हमेशा धोखा दे जाती है। काजल लगाकर सुन्दर कजरारी भी किया तो थोड़ी देर साथ दिया पर उन नमकीन पानी ने साथ छोड़ दिया जो आँखों से उछल कर बाहर आ गए। थोड़ा ठहर जाते, तो क्या बिगड़ जाता।
पीछे छूट रहे पल असहाय से दूर होते जा रहे है। मन की नदी सूख न जाए कहीं। समय का जानलेवा जबड़ा कभी भी टूट पड़ सकता है।
रोज़ ढेर सा लिखने को। उँगलियों पर गिनती हूँ और मुस्करा देती हूँ। शीत के बाद बसंत, फिर गर्मियां और फिर बरसात, निरंतर बैचेनी तो बनी रहेगी।
- निवेदिता दिनकर
२९/११/२०१४
फोटो क्रेडिट्स - उर्वशी दिनकर
फोटो क्रेडिट्स - उर्वशी दिनकर
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