अजीब एक 'गंध' आती है,
एक दम अलग,
तुम औरतों से ...
हरे धनिये की ...
या
कच्ची तुरई के पीले फूल की
या
रोप रही मिटटी की ...
तुम्हारी चटक सूती धोती भी न ...
'सिलक' की साड़ी से बढ़िया लगती है |
ऐसे 'खी खी' हँसती ,
जब
कोई तुम्हारी तारीफ़ करें ,
कि बस
पुरवैया इठला जाये ...
सिर ऐसे ढाँकती
जईसे सब मर्द तुम्हारे श्वसुर, जेठ लगें ...
फोटु खिंचवाते टाइम भी
हंसते-हंसते पल्लु से मुंह ढक लेती हो ...
पता है ,
तुम तो
चुपके से उतरती कोई बूँद हो
किसी के पुराने इंतज़ार की ...
- निवेदिता दिनकर
तस्वीर : मेहनतकश किसान औरतों से एक रूबरू , लोकेशन : दारुक , वृन्दावन
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (28-09-2018) को "आओ पेड़ लगायें हम" (चर्चा अंक-3108) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 29 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंनिवेदिता दी, स्त्री का बहुत ही सुंदर चित्रण किया हैं आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अंकन एक भोली सी गाँव की नारी का ।
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