मंगलवार, 1 मई 2018

फर्क




पारा चालीस डिग्री,
पसीने की बदबू , 
मिट्टी में सने कपड़े, 
कीचड़ से लथपथ फटे पैर 
तसले में सीमेंट बजरी मिलाती 
हाथ की चमड़ी उखड़ी हुई  ... 

चेहरे के लिए 
कोई शब्द नहीं दे पायी |  

उदास , खोयी हुई , एक ख़ामोशी 
या कुछ और  ... 

बस ,
सोचती रह गयी  ... 

क्या ' उदासी ' इसे ही कहते है ?

हम तो इंटरनेट नहीं चलने पर उदास हो जाते है 
या 
 एयर कंडीशनर ठंडा नहीं कर रहा हो तो  
या 
आज मेड नहीं आयी हो  ...  

मैं लौटती हूँ , उनके जमीन पर | 

 उनसे 
पूछने पर कि, 
आज क्या तारीख है ?
"पहली "
कहकर चुप |  

बताया जब, आज पहली मई है | 
आओ , तनिक अपने श्रम को मनायें  ... 

एकदम फीकी हँसी होठों पर लातीं है  ... 
नजरें झुका लिया गया   ... 

जैसे मुझे चिढ़ा रहे हो, 
क्या फर्क पड़ता है  ... 

वाक़ई , 
क्या फर्क पड़ता है? 

- निवेदिता दिनकर 
  ०१/०५/२०१८ 
#आत्मखोज  #साइटडायरीज   #निवेदितादिनकर  

तस्वीर : आज के बिताये कुछ कीमती समय , शाहजहाँ पार्क साइट , आगरा 

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (03-05-2017) को "मजदूरों के सन्त" (चर्चा अंक-2959) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं