गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

विचारक




महसूस करता हूँ
जैसे,
किसी यातना शिविर में पड़े
कैदी की तरह ...
तो कभी
किसी मानसिक चिकित्सालय में पड़े
मनोविक्षिप्त की तरह ...
जिसे बोलने ,
चलने फिरने
उठने बैठने
के लिए
अनुमति लेनी पड़े ...
साँस भी कब चली जाये
यह भी नियति नहीं ...
अनुमति तय करेगी |
वीभत्सता की पराकाष्ठा,
निर्ममता चरम पर पहुँच कर सोच में पड़ जाये ,
रक्त रिसते रिसते दिशा भ्रम हो जाये ,
घाव की गहराई अनुमान रहित ...
डर और दर्द दोनों सकपकाये हुए
अब तक के सारे मापदंड ताक पर ...
ताक पर ही मशहूर कवियों की ओजस्वी कविताएँ
सबकी सब ठिठकी हुई ...
ठिठके खड़े बांके बिहारी जी,
"अब 'अक्षय तृतीया' पर भी नहीं दिखाऊँगा अपने चरण "...
चरण चरण पर शोध प्रतिशोध ...
घर घर से रुदन गीत ...
मंद मंद मुस्करायेंगे ...
क्योंकि
मैं सिद्धांतवादी हूँ |

 निवेदिता दिनकर 
तस्वीर : " आस "

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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