रविवार, 16 अक्टूबर 2022

महसा अमिनी...





 महसा अमिनी ...

तमाम रंजिशे चलती रहती हैं | विद्रोह करते चलते हैं |

"क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज प्रतिशोध लेना चाहा ?" जयशंकर प्रसाद की यह पंक्तियां कई बार बराबर से निकल जाती हैं ... तो कई बार बस अब ख़त्म ...

भयानक आंधी से निबटने को कहाँ कोई तैयारी है/ होती है पर खुर्राट चुस्त बना दिए गए इन आधारों के बदौलत | तनिक देर सुस्ताने को मिलना भी जब रस्साकशी में बदले तो भी इसे व्यर्थ नहीं समझ कर क्षमा कर देना उचित है |

बिखरा हुआ सामान बांधने में समय लगता है | बारिश, बारिश, बारिश, के बाद धूप की एहमियत कितनी बढ़ गयी , है न !!! यह धूप से आँखे चौंधिया नहीं रही बल्कि मुख और मिज़ाज़ प्रसन्न हो रहा है |

अब अपराध बोध के मायने बदल कर रख दिए एक तरफ , बिलकुल निर्मम ... सिसकियाँ फेंक दी कहाँ , नहीं पता ...

नाचती हुई खिलखिला उठती हूँ अब!!
जब तब !!!

- निवेदिता दिनकर
१४/X /२०२२

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार 17 अक्टूबर, 2022 को     "पर्व अहोई-अष्टमी, व्रत-पूजन का पर्व" (चर्चा अंक-4584)    पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. मौसम की तरह मन भी बदलता रहता है इसे कभी भी सीरियसली नहीं लेना चाहिए

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