रविवार, 8 जुलाई 2018

पुरसुकून




एक रेत के टीलें को मैंने चुन लिया था
दूर दूर तक बेतरतीब उभार ...
नक्काशी दार ...
सांय सांय करती उन्मादी हवाएँ ,
जिनको होश ही नहीं था
किधर मुड़ना है?
मेरी आवारा धड़कने
भी
धक् धक् गूँज रही थी |
आज एक मन्नत को पूरा होते देखा
रूही कंदराएँ
नज़्म नज़्म हो रही थी ...

- निवेदिता दिनकर
०३/०७/२०१८
तस्वीर : थार मरुस्थल , जैसलमेर 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-07-2018) को "देखना इस अंजुमन को" (चर्चा अंक-3027) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. निमंत्रण विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक ''बदलते रिश्तों का समीकरण'' के प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। सादर 'एकलव्य' https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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