हर बार बच्चें जब अपनी कॉलेज या नौकरी से छुट्टी ले कर दो तीन दिन के लिए घर आते है , हर कोना घर का किचन के साथ साथ महकने लगता है क्योंकि कहीं जीरे हींग का छौंक तो कहीं किस्से कहानियों का छौंक तो कहीं हँसी ठट्टों का छौंक |
मेरे घर में हमारी 'आपसी बहस' भी बेचारी तरस जाती है, वह भी बैक सीट पर चली जाती है |
क्या खिला दूँ , कहाँ ले जाऊँ, थोड़ा सा और पास बैठ लूँ , मगर हर बार कुछ न कुछ छूट ही जाता है | दोबारा पकड़ने के लिए यह छूटना भी तो चाहिए | फिर वह फ़ोन पर निबटती है थोड़ा थोड़ा कर |
अरे, पैसे रख लिए ? सब एक जगह मत रखो ? टिकट रख लिया ? झुमकी बोलती है, "अरे , पापा , मोबाइल में टिकट है | तुम लोग बेबी की तरह ख्याल रखते हो | "
उनके कमरे में जाकर 'जैसे वे छोड़कर जाते है ', वैसे ही चीज़ो को रखें रहन देती हूँ | इस बार से लेकर अगली बार तक के लिए | उनकी छुअन , उनकी नोक झोंक , उनकी अधूरी बातें अगले कड़ी में घुलने तक सब तरो ताज़ा सी |
एक पड़ाव में आकर फिर आप और आपका साथी, बिलकुल शादी के बाद टाइप लाइफ| वैसे यह मौका या दस्तूर सहेजा जाये , उचित अनुचित उपयोग लिया जाये , दुरुस्त एनर्जी का संचार रहता है | सोचा जाये तो , आपसी सहमतियाँ असहमतियाँ होती भी रहनी चाहिए | यह किस्से फिर कहीं |
पता है , बच्चें अब बच्चे नहीं है पर वह बच्चे रहेंगे |
बच्चें आत्मा से होते है, सचमुच ...
- निवेदिता दिनकर
07/03/2018
फोटो क्रेडिट्स : दिनकर सक्सेना , "दूर ढलती साँझ "
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'