अरे ओ चाँद,
तु जितना खूबसूरत कल शरद पूनो को था, उतना आज भी अमृत बरसा रहा था और सच मान, आज भी भीगने से, मैं उतनी ही पल्लवित हुई।
तेरे प्रेम से कोई न बच पाया
और
मैं ...
मैं तो ठहरी वावरी ...
ठगी ठगी सांवरी ...
न कोई देस, न कोई धर्म
है पावन प्रीत री ...
- निवेदिता दिनकर
16/10/2016
फ़ोटो क्रेडिट्स : आज वॉक पर यह मनोरम दृश्य और मेरी ललचायी आँखे ...
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-10-2016) के चर्चा मंच "बदलता मौसम" {चर्चा अंक- 2499} पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंशरदपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'