शनिवार, 13 अप्रैल 2013

न आने दू






न आने दू तुम पर कोई आंच 
चाहे हो कालनिशा सी रात 
हो  भभक भवजाल 
या फिर रुग्ण कराल 
कटाक्ष का  घाव 
या सांघातिक नियति 
वायदा ऐ लब का
समरभूमि सी आहुति । 

अहर्निश की बटोही 
तासीर इतना कि 
छलावा  या अकिंचनता
झंझावत या शठता 

विवशता या शत्रुता  
बनके सनाह 
रहो तुम भास्वरता 
आयुष्मान 
अयाचकता  ॥   

- निवेदिता दिनकर 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत . बहुत स्तरीय कविता. बधाई आपको.

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    1. नीरज, तुम्हारे आशीर्वचन ने मुझे दोबारा उत्साहित किया है .....वर्ना मैं तो समझ बैठी थी कि मेरी रचना ध्यान देने के काबिल ही नहीं । तहे दिल से शुक्रगुज़ार ।

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  2. निवेदिता : उत्कृष्ठ अभयगान. भाषा जितनी सहज होगी उतनी रचना जनाभिमुख होगी-

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    1. Raju, तहे दिल से शुक्रिया । आपका कमेंट सर आँखों पर | ऐसे ही ब्लॉग पर पधारते रहिये और हमारा मार्गदर्शन करते रहिये .....

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