न आने दू
न आने दू तुम पर कोई आंच
चाहे हो कालनिशा सी रात
हो भभक भवजाल
या फिर रुग्ण कराल
कटाक्ष का घाव
या सांघातिक नियति
वायदा ऐ लब का
समरभूमि सी आहुति ।
अहर्निश की बटोही
तासीर इतना कि
छलावा या अकिंचनता
झंझावत या शठता
विवशता या शत्रुता
बनके सनाह
रहो तुम भास्वरता
आयुष्मान
अयाचकता ॥
- निवेदिता दिनकर
बहुत खूबसूरत . बहुत स्तरीय कविता. बधाई आपको.
जवाब देंहटाएंनीरज, तुम्हारे आशीर्वचन ने मुझे दोबारा उत्साहित किया है .....वर्ना मैं तो समझ बैठी थी कि मेरी रचना ध्यान देने के काबिल ही नहीं । तहे दिल से शुक्रगुज़ार ।
हटाएंनिवेदिता : उत्कृष्ठ अभयगान. भाषा जितनी सहज होगी उतनी रचना जनाभिमुख होगी-
जवाब देंहटाएंRaju, तहे दिल से शुक्रिया । आपका कमेंट सर आँखों पर | ऐसे ही ब्लॉग पर पधारते रहिये और हमारा मार्गदर्शन करते रहिये .....
हटाएंkhubsurat rachna nivedita ji........
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