चाँद भी दोपहर का बहाना कर छुप गया ...
माघ के मेघ में वह गर्जन ही कहाँ !!
बैसाखी का आड़ लिए अलग बैठा रहा ।
सूरज का गला तो सूखना ही था , रे
पानी पानी माँगता रहा ...
बसंत तो तेरे सूरतिया पर, सांवरी ...
पर
यह ख़बर ,
तुझे भी कहाँ ख़बर, बावरी ...
- निवेदिता दिनकर
तस्वीर : मेरे कार्य स्थल से ... कॉपीराइट पूरी मेरी
बसंत तो तेरे सूरतिया पर, सांवरी ...
जवाब देंहटाएंपर
यह ख़बर ,
तुझे भी कहाँ ख़बर, बावरी ...
बहुत ही सुंदर। भावों का समायोजन कुछ ही शब्दों में उत्कृष्ट बन पड़ा है।
अभाव और लाचारी कहाँ कुछ और सोचने देती है। कब बसंत आया कब छाई घटा,
कब धूप हुई, कब बरसी घटा....
बसंतोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करे आदरणीया। ।।।
शुक्रिया मित्र पुरुषोत्तम जी , आपने गदगद कर दिया ...
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-02-2021) को "बज उठी वीणा मधुर" (चर्चा अंक-3980) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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बसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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नमस्कार डॉ शास्त्री ...
हटाएंबसन्त भी कहाँ सबके लिए आता है ।।सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्र .. अभिभूत हूँ |
हटाएंहर इंसान के जीवन का बसंत अलग ही होता हैं..जैसी परिस्थितियाँ वैसा बसंत..अनोखी कृति..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्र .. आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी अभिभूत कर गया
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