सोमवार, 18 जून 2018

सूखी लकड़ी











मैंने पिता को साइकिल चलाकर दफ्तर से लौटते हुए ही देखा, 
कब जाते ?

ध्यान ही नहीं दिया  ... 

मुझे उस दिन रोना था , " बापी "
जब उस शाम आप दफ्तर से परेशां घर आये थे 
फिर आप और माँ अपने दर्द को बड़ी मुस्तैदी से छिपा गए   ... 

मुझे उस दिन भी रोना था ,
जब बैंक के उस अकाउंटेंट ने मुझसे कहा था 
" इनको बैंक के काम मत देना , भूल जाते है "

पर मुझे उस दिन भी रोना नहीं आया 
जब आपको ' डिमेंश्या ' बताया  गया  
आप निर्बोध बालक से सुनते रहे ...

कागज़ कलम लेकर मैं आपको 
आपका पुराना दस्तख़त दिखा रही थी 
आप उसे भी पहचान नहीं पाए  ...  

चीख़ चीख़ कर रोना था , नहीं रोयी  ... 
मुझे रोना तो था ही नहीं   ... 

आपको दो लोग देखने आये थे 
दोनों आपसे उम्र में बड़े थे 
क्यों मेरे मन में आया कि आप ही क्यों ?

देखते देखते 
एक के बाद एक तीनों ने रुख्सत ले लिया  ... 
एक बार भी नहीं चौंकी  ... 

बस भभकती रही अंदर ही अंदर  ...

कब सूखी लकड़ी बनती गयी ?
कब ?
आपके डाल की सूखी लकड़ी ...

जल तो सकें पर कोई मोड़ न सकें  ... 

- निवेदिता दिनकर 
  १८/०६/२०१८ 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-06-2018) को "क्या होता है प्यार" (चर्चा अंक-3007) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. अपना दर्द छुपाना पड़ता है कई मौकों पर
    मर्मस्पर्शी

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