शनिवार, 5 जुलाई 2014

हे कांत!

हे कांत,

आज,
आज जब तुम 
चले गए,
चले गए बहुत दूर 
ज्ञान की खोज में चूर, 
त्याज्य मुझ और तनुज  .... 
एकदम अकेला,
निसहाय, 
बेबस  …  
सचमुच,
कितने निष्ठुर …  

क्या एक बार भी 
तुम्हारे 
पैर नहीं डगमगाए,    
साथ सोता छोड़ कर 
ह्रदय नहीं अकुलाए, 
माथे पर 
लकीरें नहीं गहराए, 
आँसू नहीं छलछलाए  …  

कि 
कैसे वेदना सहेगी? 
क्यों वेदना सहेगी ?

सिर्फ इसलिए न,
ज्ञान की खोज 
ही  
अंतिम  खोज है। 

हाँ, मुझे दरकार 
है तुम्हारी,
तुम्हारे नीरधि रूपेण प्रणय की        
तुम्हारे खुशबू रूपेण तारुण्य की,
तुम्हारे  प्रकाश रूपेण छुअन की,
तुम्हारे करुणा रूपेण असुवन की,
तुम्हारे  पाश रूपेण आसरा  की,
तुम्हारे बोध रूपेण आत्मा  की … 

क्योंकि 
मैं तुम्हारी 
यशोधरा 
केवल 
तुम्हारी …

- निवेदिता दिनकर  
  ०५/०७/२०१४  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-07-2014) को "मैं भी जागा, तुम भी जागो" {चर्चामंच - 1666} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. तहे दिल से शुक्रगुज़ार …आदरणीय डा शास्त्री जी|

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  2. अभिनंदन - निवेदिता -- मुझे हमेशा विस्मय रहा है- बुध्ध के पास यशोधरा के लिए क्या उत्तर रहा होगा... यशोधरा के भाव को वाचा दी-- अच्छा लगा---

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    1. राजु, आपके द्वारा मेरे ब्लॉग पर भ्रमण, बहुत बहुत अच्छा लगा …
      मेरे मन में विचार आते थे कि एक पत्नी को उस पल कैसा प्रतीत हुआ होगा, जब पता चला, उसका पति उसे छोड़कर चला गया है।
      उफ्फ, बहुत डरावना लगता है …

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  3. बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने
    वाकई में सबसे बड़ी वेदना होगी किसी भी स्त्री के लिए

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