सोमवार, 6 जनवरी 2020

कम्बख्त हठी ...




कुछ बातों की हिस्सेदारी नहीं होती ,
बिलकुल दास्तानों की तरह ...
कश्मीरी कहवा हलक से उतरते ही मीठी हो चली।
बादाम का असर का आसार भी ...
हौले हौले मन के फ़िज़ा में कोई दस्तक देने लगा।
डल झील ...
शिकारा राग बिलावल में कोई गीत की तैयारी करता हुआ ...
सर्द बर्फ़ीली या सीली हवा ... चुभने लगी या चूमने ...
पता नहीं ...
दो जोड़ नंगे पैर या बर्फ की सिल्ली ,
धड़कनें स्पीड बोट ...
हाथ गरम चिमटा ...
क़ैद में केवल गरम साँसे |
फ़िजा बदलने लगी ...
कैफेटेरिया का स्टुअर्ड सामने मुस्कराता हुआ ,
उँगलियाँ कहवा में डूबी हुईं ...
सिज़ोफ्रेनिया दास्तानें कम्बख्त हठी बहुत होतीं हैं ...
- निवेदिता दिनकर
  ०२/०१/२०२०

1 टिप्पणी:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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