रविवार, 18 मार्च 2018

मन का मौसम



आज मौसम का मन तो मसूरी मसूरी हो रहा है और मन का मौसम चुप। 
कहीं कोई दास्ताँ बरस पड़ा होगा, शायद। तभी खलबली मच रही है। 

अभी इंतेहानों और इंतज़ारी का मौसम है। यानि अप्रैल मई तक परीक्षाऐं खत्म होंगी और बीच में कोई तीज त्यौहार भी नहीं। तब तक हम जैसे ऐसे ही 'इंतज़ार' को सेलीब्रेट करते रहेंगे। बच्चें कभी पढाई तो कभी नौकरी से तारतम्यता के चलते घर फोन भी कहाँ कर पाते हैं। उनकी आवाज़ जिससे धडकती हमारी जिंदगी की हँसी, साँस, गुलज़ार छटपटा जाती है। परन्तु हम अपने दिल की बात कहाँ कह पाते है उनसे, है न ?

 सच है, कि व्यस्त हम सब है कहीं न कहीं। झकझोरती हूँ अवगत कराने के लिए 'अपने' को "अपने" से।

 इमोशंस को उठा कर डीप फ्रिज़ में रखना सीख लिया है मैंने।


 - निवेदिता दिनकर

तस्वीर : मेरे सौजन्य से : गेहूँ की बालियाँ , कछपुरा , आगरा 

बुधवार, 7 मार्च 2018

बच्चें






हर बार बच्चें जब अपनी कॉलेज या नौकरी से छुट्टी ले कर दो तीन दिन के लिए घर आते है , हर कोना घर का किचन के साथ साथ महकने लगता है  क्योंकि कहीं जीरे हींग का छौंक तो कहीं  किस्से कहानियों का छौंक तो कहीं हँसी ठट्टों का छौंक |   

मेरे घर में हमारी 'आपसी बहस' भी बेचारी तरस जाती है, वह भी बैक सीट पर चली जाती है | 

क्या खिला दूँ , कहाँ ले जाऊँ, थोड़ा सा और पास बैठ लूँ , मगर हर बार कुछ न कुछ छूट ही जाता है | दोबारा पकड़ने के लिए यह छूटना भी तो चाहिए |  फिर वह फ़ोन पर निबटती है थोड़ा थोड़ा कर |   
अरे, पैसे रख लिए ? सब एक जगह मत रखो ? टिकट रख लिया ?  झुमकी बोलती है, "अरे , पापा , मोबाइल में टिकट है | तुम लोग बेबी की तरह ख्याल रखते हो | "

 उनके कमरे में जाकर 'जैसे वे छोड़कर जाते है ', वैसे ही चीज़ो को रखें रहन देती हूँ |  इस बार से लेकर अगली बार तक के लिए | उनकी छुअन , उनकी नोक झोंक , उनकी अधूरी बातें अगले कड़ी में घुलने तक सब तरो ताज़ा सी | 

एक पड़ाव में आकर फिर आप और आपका साथी, बिलकुल शादी के बाद टाइप लाइफ| वैसे यह मौका या दस्तूर सहेजा जाये ,  उचित अनुचित उपयोग लिया जाये , दुरुस्त एनर्जी का संचार रहता है | सोचा जाये तो , आपसी सहमतियाँ असहमतियाँ होती भी रहनी चाहिए | यह किस्से फिर कहीं |   

पता है , बच्चें अब बच्चे नहीं है पर वह बच्चे रहेंगे |  
बच्चें आत्मा से होते है, सचमुच  ... 

- निवेदिता दिनकर
  07/03/2018

फोटो क्रेडिट्स : दिनकर सक्सेना , "दूर ढलती साँझ "