‘’कई बार मैंने मृत्यु को पास बिठाकर ज़िंदगी की सैर की है’’ - निवेदिता दिनकर
जीवन और मृत्यु के मर्म को जानने और गहन चिंतन और मनन के बाद उसे अपनी कविताओं में पिरोने का प्रयत्न करने वाली निवेदिता दिनकर एक प्रतिभावान कवयित्री हैं। इसका प्रमाण है उनका नया कविता संग्रह - ‘मात्र मात्राओं का खेल है’ जिसमें लगभग पचास कविताएँ हैं। पुस्तक का मुखपृष्ठ और कलेवर आकर्षक है तथा छपाई सुंदर है। सबसे पहले उन्हें तथा उनकी सुपुत्री को इसके लिए बधाई !
अमेजन से मँगवायी यह पुस्तक मुझे कल ही प्राप्त हुई, जैसे-जैसे कवितायें पढ़ रही हूँ, इनके बारे में कुछ लिखने की प्रेरणा सहज ही जग रही है। जीवन के विभिन्न रंगों की छटा बिखेरती ये कविताएँ कभी सुकून से भर देती हैं तो कभी कुछ सोचने पर विवश कर देती हैं।
कुछ कविताओं में बचपन बार-बार झलक आता है। दादू-दादी, नाना-नानी से सुनी कहानियाँ और झिझकते हुए पुत्री का पिता को कहना कि माँ से ज़्यादा प्रेम करने पर भी उन्हें कभी जताया नहीं, दिल को छू जाता है। बंगाल के आंचलिक जनजीवन का चित्रण करती कुछ बहुत ही सुंदर कविताएँ हैं, जैसे - बंगाल का जन जीवन और आलू झींगे पोस्ते।
कई कविताएँ स्त्री विमर्श की पड़ताल करती प्रतीत होती हैं। नारियों पर हो रहे अत्याचारों को मात्र कुछ ही शब्दों में व्यक्त कर कवयित्री पाठक के मानस को झकझोर देती है । संग्रह की पहली कविता विषय रहित स्त्री विमर्श की एक सशक्त रचना है, तीन औरतें, आखेट को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। कुरीतियों, अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ उठती उनकी कलम लिंचिंग और बलात्कार जैसे नासूर तथा धर्म के नाम पर हो रही हिंसा के प्रति जन मानस को सचेत करती लगती है। एक सशक्त कविता पुरुष का पौरुष में पुरुषों के प्रति होती नाइंसाफ़ी की बात भी रखी गयी है।
समाज में राजनीति की बढ़ती दख़लअंदाजी पर भी उनकी पैनी नज़र पड़ी है। इल्ज़ाम, पत्रकारिता शीर्षक की कविताओं में इसे देखा जा सकता है। ग़रीबी और अशिक्षा का दंश झेलते बच्चे, कोरोना काल में महानगरों से पैदल लौटते मज़दूरों की व्यथा कथा को भी अभिव्यक्ति का विषय बनाया गया है।
रिश्तों की ऊहापोह और एकतरफ़ा प्रेम की नशीली मदहोशी भी कविताओं का विषय बनी है । किस्से छलते हैं, पैटर्न, महिसा अमिनी, अंजाम और ख़ारिज इसका उदाहरण हैं। बैंगनी आसमान की यह पंक्ति छू जाती है - दर्द से बचने के लिए माँ के आँचल को उँगली में मरोड़कर छोड़ना ही एक मात्र उपाय है। अब कुर्सी में कविता में एक बहू के जज़्बातों को बखूबी संजोया गया है जो ससुर की मृत्यु के बाद उनकी कमी महसूस करती है। कुछ कविताएँ अपने भीतर एक से अधिक कहानियाँ समेटे हैं। शिमला ! कई गुलाबों का मौसम ऐसी ही कविता है। कहा जा सकता है कि जीवन के हर रंग को यहाँ समेटने का उपक्रम सहज ही दिखाई देता है। इनके अलावा भी अनेक ऐसी कविताएँ हैं जो पाठक के हृदय को किसी न किसी रूप में आंदोलित करती हैं; तथा अपने आस-पास हो रही घटनाओं और दृश्यों के प्रति एक विस्मय और कौतूहल का भाव जगाती हैं।
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