गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

विचारक




महसूस करता हूँ
जैसे,
किसी यातना शिविर में पड़े
कैदी की तरह ...
तो कभी
किसी मानसिक चिकित्सालय में पड़े
मनोविक्षिप्त की तरह ...
जिसे बोलने ,
चलने फिरने
उठने बैठने
के लिए
अनुमति लेनी पड़े ...
साँस भी कब चली जाये
यह भी नियति नहीं ...
अनुमति तय करेगी |
वीभत्सता की पराकाष्ठा,
निर्ममता चरम पर पहुँच कर सोच में पड़ जाये ,
रक्त रिसते रिसते दिशा भ्रम हो जाये ,
घाव की गहराई अनुमान रहित ...
डर और दर्द दोनों सकपकाये हुए
अब तक के सारे मापदंड ताक पर ...
ताक पर ही मशहूर कवियों की ओजस्वी कविताएँ
सबकी सब ठिठकी हुई ...
ठिठके खड़े बांके बिहारी जी,
"अब 'अक्षय तृतीया' पर भी नहीं दिखाऊँगा अपने चरण "...
चरण चरण पर शोध प्रतिशोध ...
घर घर से रुदन गीत ...
मंद मंद मुस्करायेंगे ...
क्योंकि
मैं सिद्धांतवादी हूँ |

 निवेदिता दिनकर 
तस्वीर : " आस "

सोमवार, 16 अप्रैल 2018

यह कैसे हो सकता है?



अच्छा,
जब वह तडफ़ रही होगी ,
तङफ़कर कर चीख़ रही होगी,
हिचकियाँ ले लेकर ...
फिर थक कर
थक कर सुबक रही होगी ,
तब
तब भी तुम्हें ...
तब भी किसी एक को भी ...
... ...
कोई दर्द
कोई अफ़सोस
कोई ग्लानि
नहीं ...
कैसे हो सकता है ?
यह कैसे हो सकता है?
फिर, तुम कौन जाति ?
फिर , तुम लोग आखिर कौन ?
मैं ,
जानना चाहती हूँ ...
पहचानना चाहती हूँ ,
तुम लोग कहाँ से पैदा हुए ?

- निवेदिता दिनकर 
चित्र : देहरादून के रास्ते मेरे द्वारा खींची गयी