आज ही के दिन ३०/०९/२०११, आपका हम सब से विदा लेने के बाद, मैं एकबार फिर आप से जुड़ी, एक भावांजलि …
जब जब …
भीड़ भरी सड़क में
अकेले होती ….
गहरी रातों की
सुबह ढूँढती …
तेज़ धडकनों में
विश्वास चाहती ….
गहन चिंता में
डूबी फिरती ….
सवाल जवाब में
उलझती सुलझती …
तब तब ,
मैं आपको
अपने आसपास पाती,
उदासी हल्की होती जाती,
उजाले की आस सी होती ,
हार जीत में बदलती ,
जिंदगी जिंदगी लगती …
क्योंकि
"बापी " आपका टुकड़ा जो हूँ ।
हूँ न॥
- निवेदिता दिनकर
३०/०९/२०१३