कोख में बैठी हुई
सपने संजोती हुई
कोई पल मुस्कराती
पता चलता है जब
बाहर निकलने से पहले ही
कफ़न की तैयारी है
लज्जा आती है तब ...
गर आ गई इस दुनिया
मुख देखने से पहले ही
भरोसा बनने की जगह
दायित्व बन जाऊ जब
कन्याधन की तैयारी है
लज्जा आती है तब ...
प्रतिदिन प्रतिस्पर्धा
हर कोण बेरहम
दिग्गजों के जुलूस में
अवाक् हो जाऊ जब
नौटंकी की तैयारी है
लज्जा आती है तब ...
व्रण भी खिन्न
विस्मित निष्ठुरता
लाचार मातम
लोकरीति विलाप जब
निर्निमेष की तैयारी है
लज्जा आती है तब ...
- निवेदिता दिनकर
नारी-जीवन को भार बताने वाले समाज पर करारा प्रहार ....बहुत खूब
जवाब देंहटाएंप्रिय शिखा, बहुत सा प्यार और आभार।
हटाएंनिवेदिता : सही कहा. लज्जा तो यह पढ़ कर भी आती है की अब तक इस विषय पर हम लज्जास्पद हाल में है...नहुत भावुक-
जवाब देंहटाएंप्रिय राजु, आशा है कि आपका स्नेह यूँ ही बरक़रार रहेगा । शुक्रिया ....
हटाएंबहुत ही उम्दा और बेहतरीन कविता लिखा है आप ने , आशा है की हमे अनुप्र्रेरणा मिलेगा !
जवाब देंहटाएंआपका शुक्रिया
रजत सान्याल
रजत जी , आभार आपका मेरी रचना को पढने के लिए और मनोबल बढाने के लिए । धन्यवाद ....
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