मीटिंग देर तक चली थी | दोपहर के दो बजने को आये थे | भूख हावी होने लगी थी | दिल्ली के कुछ ऑफिशियल्स भी साथ थे | सोचा गया पहले लंच कर लिया जाये | चोखो जीमण , जो राजस्थानी व मारवाड़ी भोजन के लिए प्रसिद्ध है, के लिए जाया गया | नमकीन छांछ से शुरुवात कर खीर रसगुल्ले पर क्षुधा समाप्त हुई |
जब बाहर निकल के आये, तीन बज चुके थे | धूप अपने पूरे होशोहवास पर और जून के मौसम पर पूर्ण रूपेण अधिकार जमाये हुए | बाहर खड़े होकर लास्ट मिनट टॉक्स चल ही रही थी , तभी एक सज्जन पास आकर खड़े हुए | उम्र लगभग पचहत्तर - अस्सी के आसपास | पूछने लगे , रेलवे स्टेशन कितनी दूर है ? मैंने बताया ही था कि बस थोड़ी दूरी पर, कि अचानक निगाह गयी सज्जन के पीछे खड़े उनकी पत्नी पर | झुकी हुई कमर , हाथ में लाठी , सफ़ेद प्रिंटेड धोती | पूछने लगीं अभी भी दूर है ? इस पर मैंने कहा, नहीं , ज्यादा नहीं | पर मुझे लगा कि पत्नी को चलने में शायद कठिनाई हो रही है | तो मैंने तुरंत एक रिक्शे वाले को आवाज़ लगायी और कहा कि इन्हें स्टेशन तक छोड़ आओ और उसकी मुठ्ठी में तीस रूपए रख दिए, जबकि दूरी महज दस रूपए की ही थी | सज्जन ने बड़ी विनम्रता से कहा , इसकी जरूरत नहीं , पैसे है | मैंने कहा, नहीं, बाऊजी , आप रिक्शे में बैठ जाइये | अम्माजी ने आँखों ही आँखों में बहुत कुछ कहा , जो मेरे दिल ने सुन ली थी |
जैसे ही रिक्शा थोड़ी दूरी पर गया , एक ऑफिस कुलिग ने कहा , आप ने रिक्शा वाले को पैसे दे दिए , अब वह वहां पहुँचाकर , उन लोगो से भी पैसे माँगेगा | आपको रिक्शा वाले को बता देना चाहिए था कि पैसे न माँगे |
मैंने कहा , मेरे से नहीं कहा गया | ऐसा कहकर मैं रिक्शा वाले को शर्मिंदा नहीं कर सकती थी | यह तो साधारण सी बात है कि पैसे उसे नहीं लेने चाहिए | क्या इतना भरोसा भी एक इंसान दूसरे इंसान पर नहीं कर सकता ? केवल इसलिए कि वह रिक्शा चलाता है ?
जैसे मुझे अच्छा लगता है , जब मुझ पर भरोसा किया जाता है |
- निवेदिता दिनकर
०८/०६/२०१८
चित्र : वृन्दावन की गली की सहजता, गलियों के अवलोकन के दौरान