मुझे उस दिन रोना था , " बापी "
जब उस शाम आप दफ्तर से परेशां घर आये थे
फिर आप और माँ अपने दर्द को बड़ी मुस्तैदी से छिपा गए ...
मुझे उस दिन भी रोना था ,
जब बैंक के उस अकाउंटेंट ने मुझसे कहा था
" इनको बैंक के काम मत देना , भूल जाते है "
पर मुझे उस दिन भी रोना नहीं आया
जब आपको ' डिमेंश्या ' बताया गया
आप निर्बोध बालक से सुनते रहे ...
कागज़ कलम लेकर मैं आपको
आपका पुराना दस्तख़त दिखा रही थी
आप उसे भी पहचान नहीं पाए ...
चीख़ चीख़ कर रोना था , नहीं रोयी ...
मुझे रोना तो था ही नहीं ...
आपको दो लोग देखने आये थे
दोनों आपसे उम्र में बड़े थे
क्यों मेरे मन में आया कि आप ही क्यों ?
देखते देखते
एक के बाद एक तीनों ने रुख्सत ले लिया ...
एक बार भी नहीं चौंकी ...
बस भभकती रही अंदर ही अंदर ...
कब सूखी लकड़ी बनती गयी ?
कब ?
आपके डाल की सूखी लकड़ी ...
जल तो सकें पर कोई मोड़ न सकें ...
- निवेदिता दिनकर
१८/०६/२०१८